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आपणी परंपराः -:गरुड़ के छटिया गांव में बिना हुड़के के लग रहा हुड़किया बौल

परंपराः गरुड़ के छटिया में बिना हुड़के के लग रही हुड़किया बौल

लोकसंस्कृति

बागेश्वर, उत्तराखंड को लोक संस्कृति और लोकगीतों की परंपरा रही है। कभी इसी संस्कृति का प्रमुख हिस्सा है। इसी परंपरा से जुड़ी खेती आज सिमटती कृषि के साथ ही कम होती जा रही है। जुलाई के महीने में लगने वाला किया बील अधिकांश इलाकों से समाप्त हो गया है। इस विधा को गाने लोग भी हो रहे हैं। गरूर तहसील के छटिया में आज भी विलुप्त होती परंपरा जीवित है।

यहां महिलाएं अपनी परंपरा को बचाने का प्रयास कर रही है। जो लोकगाथाओं के माध्यम से खेती करते आ रहे


पूरे जिले में धान उत्पादन के क्षेत्र में कत्यूर घाटी का कोई तोड़ नहीं है। यहां के कई सेरे (स्यार) मानो सोना उगलते हैं। इस बार प्री मानसून के जमकर बरसने और 4दिन से हो रही बारिश से सिचाई विभाग को भी काफी राहत मिली। काश्तकार इन दिनों भूमि पूजन के साथ ही रोपाई कर रहे हैं। रोपाई के दौरान हुड़किया बौल लगाने की परंपरा कत्यूर घाटी के कई इलाकों में आज भी कायम है। यह उमस भरी गर्मी में खेतों में मनोरंजन का एक नायाब तरीका भी है और इससे रोपाई का कार्य भी तेजी से होता है।

उत्तराखंड के पर्वतीय क्षेत्रों में धान की रोपाई के लोक गीत भी गाए जाते हैं। पहले भूमि के देवता भूनिया पानी के देवता इंद्र, छाया के देव मेघ की वंदना से शुरुआत होती है। फिर हाथ व वीर रस आधारित राजा बिंदुमा गाईजाती है। हुड़क की कारगीत गाता है, जबकि रोपाई लगाती महिलाएं उसे दोहराती है। हुडके की घमक और अपने बोल से कलाकार काम में फूर्ती लाने का प्रयास करता है।

उत्तराखंड वार्ता

उत्तराखंड वार्ता समूह संपादक

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